अलक़ाब ख़त में जितने बा'द-अज़-सलाम लिक्खे दुश्मन को दोस्ती के बेहतर मक़ाम लिक्खे मेरी रफ़ाक़तों के ये इंतिक़ाम लिक्खे ख़ंजर ज़माने-भर के बस मेरे नाम लिक्खे नाकाम ज़िंदगी में दीवाना काम लिखे पत्थर हवा में फेंके पानी पे नाम लिक्खे जुरअत में रह-रवी ये नक़्श-ए-दवाम लिक्खे आँखों में सुब्ह लिक्खे ठोकर में शाम लिखे बादल सराब बन कर ख़ुद को उड़ा चुका है प्यासों ने लेकिन अपने होंटों पे जाम लिक्खे बस्ती से बे-तहाशा उड़ते हुए धुएँ ने दीवार-ओ-दर पे उजले मंज़र तमाम लिक्खे वो संग-ए-मील 'ज़ाकिर' राहों में अनगिनत हैं लेकिन जुनूँ ने अपने क्यों चँद गाम लिक्खे