ज़िंदा होने का भरम भी तो बहुत लाज़िम है रोज़ मर-मर के ही जीना है जगा कर ख़ुद को घर का सूरज तो जला करता है घर की ख़ातिर रौशनी देता है जो आग लगा कर ख़ुद को आस मिलने की लिए जी में चली जाती हूँ मौज-ए-दरिया हूँ मिलूँगी मैं बहा कर ख़ुद को दाइमी ज़ीस्त मिलेगी जो अगर चाहत है उस को पाने की तड़प में तो फ़ना कर ख़ुद को रम्ज़-ए-तन्हाई है इस में कभी यूँ कर 'ज़ाकिर' सुन ले अपनी भी तो कुछ अपनी कहा कर ख़ुद को