कभी पढ़ो तो मुझे हर्फ़-ए-मो'तबर की तरह

कभी पढ़ो तो मुझे हर्फ़-ए-मो'तबर की तरह
ये क्या कि पढ़ते हो फ़र्सूदा सी ख़बर की तरह

क़लम तो करते हो सर को मिरे मगर सुन लो
मैं रेग-ज़ार-ए-वफ़ा में हूँ एक शजर की तरह

उदासी खोल के बाल अपना सो रही है यहाँ
कि जैसे शहर में हर घर है मेरे घर की तरह

हमारे ज़ौक़-ए-परस्तिश को तुम दुआएँ दो
चमक रहे हैं ये पत्थर जो अब गुहर की तरह

मशाम-ए-जाँ में अभी तक है उस बदन की बास
खिला था रात जो इक ग़ुंचा-ए-सहर की तरह

हर एक संग पता पूछता है घर का मिरे
नहीं है क्या कोई सर और मेरे सर की तरह

नवाह-ए-जाँ में उजालों का रक़्स है 'शिबली'
ये कौन आया दबे पाँव यूँ सहर की तरह


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