अमाँ न पाई ग़म-ओ-फ़िक्र से कभी मैं ने इसी घुटन में गुज़ारी है ज़िंदगी मैं ने किसी के नक़्श-ए-क़दम पे झुका के सर अपना बुलंद कर लिया मेआ'र-ए-बंदगी मैं नय ग़म-ए-हयात ने बख़्शा शुऊ'र जीने का इसी अंधेरे से पाई है रौशनी मैं ने तू एक कर्ब का दरिया है और कुछ भी नहीं तुझे क़रीब से देखा है ज़िंदगी मैं ने तुफ़ैल-ए-रहमत-ए-आलम मुआ'फ़ कर मुझ को मिरे करीम ख़ता की है वाक़ई मैं ने किसी हसीं की अमानत समझ के ऐ 'नय्यर' गले लगाया है ग़म को ख़ुशी ख़ुशी मैं ने