अमीरों के लाल-ओ-गुहर बोलते हैं ग़रीबों के इल्म-ओ-हुनर बोलते हैं ग़म-ए-हिज्र की इक कहानी तिरा ख़त लिखावट के ज़ेर-ओ-ज़बर बोलते हैं नमाज़ी बनो गर मोहब्बत है मुझ से हदीसों में ख़ैरुल-बशर बोलते हैं जिन्हें इल्म-ओ-फ़न पर तकब्बुर नहीं है वही आदमी मुख़्तसर बोलते हैं अज़ाँ हो रही है मिरी सम्त आओ मसाजिद के दीवार-ओ-दर बोलते हैं 'सहर' नर्म लहजे का अंदाज़ छोड़ो यहाँ सिर्फ़ तेग़-ओ-तबर बोलते हैं