अना की आग में हर लम्हा जल रहा हूँ मैं ग़िज़ा मिरी है यही इस में पल रहा हूँ मैं कभी इस आग के साँचे में ढल रहा हूँ मैं कभी ये बर्फ़ कि जिस में पिघल रहा हूँ मैं हर एक सुब्ह उफ़ुक़ से निकल रहा हूँ मैं शफ़क़ में अपनी हर इक शाम ढल रहा हूँ मैं हर एक मोड़ पे रस्ता कुचल रहा हूँ मैं कि अपने क़दमों से ख़ुद को कुचल रहा हूँ मैं मैं अपने ज़िंदाँ में क़ैदी बना गया ख़ुद को और अपने आप से बच कर निकल रहा हूँ मैं कोई तो बच्चा 'हसन' है छुपा हुआ मुझ में कि जिस की माँग पे हर दम मचल रहा हूँ मैं