अना मुँह आँसुओं से धो रही है ज़रूरत सर-ब-सज्दा हो रही है मिरी दुश्मन मिरी बे-बाक-गोई मिरी राहों में काँटे बो रही है रिया-कारी लिए जाती है सब्क़त हक़ीक़त सर झुकाए रो रही है मुसलसल इक अज़िय्यत ज़िंदगानी ग़मों के बोझ सर पर ढो रही है ज़माना मस्लहत-परवर हुआ है ज़रूरत आदमीय्यत खो रही है किसी की शख़्सियत मजरूह कर दी ज़माने भर में शोहरत हो रही है