अनवार-ए-नौ-ब-नौ से मामूर हो के उट्ठा दिल उन की अंजुमन से पुर-नूर हो के उठा हुस्न-ए-तलब की ज़ौ से ख़ुद बन गया तजल्ली ऐमन की वादियों से दिल तूर हो के उट्ठा गिर्दाब-ए-मुस्तक़िल हूँ मैं सत्ह-ए-बहर-ए-ग़म पर मौज-ए-फ़ना की ज़द से मजबूर हो के उट्ठा हर एक संग-ए-दर है मेरी जबीं का तालिब मैं उन के आस्ताँ से मंसूर हो के उट्ठा राह-ए-तलब में अक्सर ऐसे मक़ाम आए हर नक़्श-ए-पा-ए-मंज़िल पुर-नूर हो के उट्ठा मुझ से न पूछ साक़ी देख अपनी बे-रुख़ी को मैं तेरी अंजुमन से मजबूर हो के उट्ठा अंजाम-ए-गुल्सिताँ पर 'माहिर' मैं हँस रहा हूँ जो गुल खिला चमन में बे-नूर हो के उट्ठा