बर्क़ के दोष पे फूलों की सफ़-आराई है नुदरतें ले के गुलिस्ताँ में बहार आई है इश्क़-ए-मजबूर ने जब हुस्न की शह पाई है गर्दिश-ए-वक़्त भी मजबूर नज़र आई है रक़्स में जल्वा-ए-बे-रंग की रानाई है मेरी हस्ती में तिरी ज़ात उतर आई है और तो कोई नहीं चश्म-ए-तमाशा का मुजीब एक हैरत है जो ख़ामोश तमाशाई है अपने क़दमों के भरोसे पे मिली है मंज़िल वो ही भटका है जिसे राह की याद आई है आज हर शे'र है इरफ़ान-ए-हक़ीक़त 'माहिर' बिल-यक़ीं तेरे तग़ज़्ज़ुल की पज़ीराई है