अपने घर से वो मिरे घर आ गया चाँद आख़िर हद के बाहर आ गया ख़त पहुँच सकता है अब उम्मीद है उस का पत्थर मेरी छत पर आ गया वो ख़फ़ा तो है मगर ज़्यादा नहीं दे के ख़त ज़िंदा कबूतर आ गया रात मुझ को ख़्वाब पर हैरत हुई हाथ फैलाए समुंदर आ गया तू भी क़ासिद आज-कल पागल है कुछ किस का ख़त था किस को दे कर आ गया जागते गुज़री न हो उस की भी रात मैं ख़ुदा-हाफ़िज़ तो कह कर आ गया बंद मुट्ठी अपनी 'अनवर' खुल गई सामने जब भी सिकंदर आ गया