अपने मिट जाने का इदराक लिए फिरता हूँ ख़त्म होती हुई इम्लाक लिए फिरता हूँ आसमाँ मेरा इक इम्कान लिए फिरता है और में मंतिक़-ए-अफ़्लाक लिए फिरता हूँ ख़ाक पावँ से न लगती थी कभी लेकिन अब ख़ाक और बाद की पोशाक लिए फिरता हूँ कितनी टूटी हुई बिखरी हुई दुनिया है ये ख़ाक उड़ाता हूँ जिगर चाक लिए फिरता हूँ