अपने पहले मकान तक हो आऊँ मैं ज़रा आसमान तक हो आऊँ कोई पैकर पुकारता है मुझे सामने की चटान तक हो आऊँ झड़ता जाता है जिस्म रोज़-ब-रोज़ कूज़ा-गर की दुकान तक हो आऊँ सेहर-ए-तशकीक! अब रिहाई दे मैं कोई दम गुमान तक हो आऊँ वक़्त अब दस्तरस में है 'अख़्तर' अब तो मैं जिस जहान तक हो आऊँ