इंसाँ जो हैं इन को कभी कमतर नहीं देखा ख़ुद राह का ख़म होते हुए सर नहीं देखा तुम बहर-ए-मोहब्बत के किनारे पे खड़े थे तुम ने मिरी आँखों में समुंदर नहीं देखा यूँ बीत गई शहर-ए-ग़रीबाँ में मिरी उम्र ख़ुश-हाल यहाँ मैं ने कोई घर नहीं देखा दिल ख़ाक हुआ प्यार की इस आग में जल कर और झाँक के उस ने कभी अंदर नहीं देखा आवाज़ पे आवाज़ वो देता रहा 'नय्यर' हम ने उसे इक बार भी मुड़ कर नहीं देखा