अपने वहम-ओ-गुमान से निकला मैं अँधेरे मकान से निकला बे-रुख़ी देख अब ज़माने की मुद्दआ' क्यूँ ज़बान से निकला सम्त का ग़म न था सफ़ीने को ये अलम बादबान से निकला धूप बरसा रही थीं तलवारें फिर भी मैं साएबान से निकला वक़्त मोहलत न देगा फिर तुम को तीर जिस दम कमान से निकला आ गया लीजिए साहिल-ए-हस्ती मैं बड़े इम्तिहान से निकला ज़िंदगी का नया मिज़ाज 'नियाज़' दर्द के ख़ानदान से निकला