अपना ही अक्स नज़र आए जिसे भी देखूँ ख़ुद से फ़ुर्सत नहीं मिलती कि तुझे भी देखूँ कितनी हसरत है कि तस्कीन-ए-नज़र की ख़ातिर रह के मैं अपने हवासों में उसे भी देखूँ वक़्त के साथ असालीब-ए-सुख़न बदले हैं क्यों न मौज़ू-ए-सुख़न और नए भी देखूँ अपनी ही ज़ात में गुम हो के न रह जाऊँ कहीं ज़िंदगी का जो तक़ाज़ा है उसे भी देखूँ साथ खेले हुए बचपन के बहुत हैं लेकिन अजनबी सब नज़र आते हैं जिसे भी देखूँ आबरू कुछ तो मिरी दीदा-वरी की रह जाए तुझ को जब चाहूँ जहाँ चाहूँ छुपे भी देखूँ किस की तक़दीर में है दार-ओ-रसन का मंसब ख़ुश-नसीब ऐसा कोई है तो उसे भी देखूँ आँख रौशन है अगर दिल नहीं रौशन तो 'असर' किस तरह आलम-ए-इम्काँ से परे भी देखूँ