दामन पे जम के रह गई या आस्तीन पर टपकी न एक बूँद लहू की ज़मीन पर इंसानियत के दर्स की तकमील हो गई आएगा अब न कोई पयम्बर ज़मीन पर आँधी तवहहुमात की किस ज़ोर की चली उड़ने लगी है धूल फ़ज़ा-ए-यक़ीन पर ऐब-ओ-हुनर परखने का जिस को शुऊ'र है आए न प्यार क्यों मुझे उस नुक्ता-चीन पर फूटी तिरे लबों के तबस्सुम से जो किरन चमकी लकीर बन के सहर की जबीन पर उजड़ा तो फिर बसा न कभी क़स्र-ए-दिल मिरा वीरानियों का साया है अब शहि-नशीन पर गुज़रा हज़ार तल्ख़ी-ए-हालात से मगर उभरी कोई शिकन न 'असर' की जबीन पर