अपने होंटों पे तिरे प्यार का इक़रार लिए फिर पलट आए हैं हम जुरअत-ए-इज़हार लिए धूप से मैं तो झुलस जाता मिरे यार मगर साथ चलता है कोई साया-ए-अश्जार लिए जी रहे हैं तो ये हिम्मत है हमारी वर्ना लोग फिरते हैं यहाँ ख़ंजर-ओ-तलवार लिए इश्क़ भी एक तमाशा सा हुआ जाता है फिरता रहता है गरेबाँ सर-ए-बाज़ार लिए फिर से 'ज़रयाब' उसे मेरा है इक़रार हुआ आ गया फिर से कोई लहजा-ए-इंकार लिए