अपनी अलग ही सम्त में राहें निकाल कर वो ले गया है जिस्म से साँसें निकाल कर लौटे तो ये न सोचे कि ख़त झूट-मूट थे मैं रख चला हूँ बाम पर आँखें निकाल कर मेरे कफ़न के बंद न बाँधो अभी मुझे मिलना है एक शख़्स से बाँहें निकाल कर क्या ज़र्फ़ है दरख़्त का हैरत की बात है मिलता है फिर ख़िज़ाँ से जो शाख़ें निकाल कर तू ही बता कि आँख के शमशान घाट में कैसे बसा लूँ मैं तुझे लाशें निकाल कर हर शख़्स अपने क़द के बराबर दिखाई दे सोचें जो दरमियान से ज़ातें निकाल कर चाहो तो कर लो शौक़ से तुम भी हिसाब-ए-वस्ल इक पल बचेगा हिज्र की रातें निकाल कर