अपनी क़िस्मत कि तिरे साथ नज़र आते हैं तुझ से मिलने के लिए शम्स-ओ-क़मर आते हैं किस को अब क़िस्सा-ए-महबूब सुनाया जाए याद करते हैं तो सब ज़ख़्म उभर आते हैं आख़िरी वक़्त में दे जाते हैं दाग़-ए-फ़ुर्क़त हम-सफ़र ऐसे भी दौरान-ए-सफ़र आते हैं याद आता है मिरा तुम से जुदा हो जाना बर्ग जिस तरह हवाओं में बिखर आते हैं कू-ए-जानाँ की फ़ज़ाओं के तक़द्दुस की क़सम वाँ से जो आते हैं वो पाक नज़र आते हैं ज़ाहिद-ए-ख़ुश्क को मतलब नहीं मयख़ाने से दिलबरी जिन का वतीरा हो इधर आते हैं