अपनों ही पे होती है हर मश्क-ए-जफ़ा पहले

अपनों ही पे होती है हर मश्क-ए-जफ़ा पहले
की चाक बहारों ने फूलों की क़बा पहले

उस के लिए उट्ठे थे गो दस्त-ए-दुआ' पहले
बीमार की क़िस्मत से आ पहुँची क़ज़ा पहले

अब उन की जफ़ाओं का क्यों दहर से शिकवा है
डाली थी हमीं ने तो बुनियाद-ए-वफ़ा पहले

महसूस ये होता है जैसे कभी देखा हो
ऐ दोस्त मगर तुझ को देखा तो न था पहले

बीमार-ए-मोहब्बत के अंदाज़ बताते हैं
तदबीर-ओ-दवा आख़िर तक़दीर-ओ-दुआ पहले

क्या फ़िक्र है दीवाने मिल जाएँगे फिर वो भी
तू चाक-ए-गरेबाँ को दामन से मिला पहले

'शौक़' उस के तजस्सुस में ये हाल भी गुज़रा है
पूछा है ज़माने से अपना ही पता पहले


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