दूर तक रह गई है तन्हाई ख़ुद-परस्ती की ये सज़ा पाई अब तो दीदार भी मयस्सर कर जब अता की है मुझ को बीनाई क्या तिरा कोई भी नहीं है यहाँ तंज़ करती है रोज़ तन्हाई दूसरा इश्क़ करके देख लिया हो न पाई तुम्हारी भरपाई कौन मेरी गली में आया है किस ने सारी फ़ज़ा है महकाई मसअले बात कर के हल होते आप ख़ामोश हो गए भाई जब भी ख़ल्वत में सोचता हूँ तुझे रक़्स करती है मेरी तन्हाई जिस की ख़ातिर उजड़ गया 'शीराज़' अब तलक दिल में है वो हरजाई