अर्ज़ी दी तो निकली धूप कोहरे ने ढक ली थी धूप दो क़दमों पर मंज़िल थी ज़ोरों से फिर बरसी धूप बूढ़ी अम्मा बुनती थी गर्म स्वेटर जैसी धूप धूप में तरसे साए को साए में याद आई धूप भूकी नंगी बस्ती ने खाई जूठन पहनी धूप फुनगी पर आ बैठी देख कितनी शातिर निकली धूप साए में ही रहते हो देखी भी है तीखी धूप ग़ुर्बत के चूल्हे पे है फ़ाक़ों की फीकी सी धूप ग़ज़लों के चर्ख़े पे नित एहसासों की काती धूप ढलती शाम ने देखी है लाठी ले कर चलती धूप चाय के कप में उबली अख़बारों की सुर्ख़ी धूप जीवन क्या है बोल 'ख़याल' खट्टी मीठी तीखी धूप