अशआ'र में जो मेरे किरन जुस्तुजू की है मीरास ये भी तेरे ही मोहर-ए-नुमू की है नज़रों में अब भी हैं तिरे लहजे के माह-ओ-नज्म अब भी समाअ'तों में चमक गुफ़्तुगू की है तेरी पुकार है कि ये बूँदें हैं ओस की आवाज़-ए-नग़्मा है कि सदा आब-जू की है दीवार-ए-ज़ब्त टूट भी सकती है कुछ करूँ फ़व्वारा छूट जाए वो हालत लहू की है यूँ फूल तो बरसते न थे कू-ए-यार में ये हम गुज़रते हैं कि सवारी अदू की है प्यासों को इंतिख़ाब की जुरअत न कोई हक़ क्या पूछिए हुज़ूर ये किस के सुबू की है 'अरशद' वो सामने ही तो है शाख़-ए-दस्तरस दूरी बस एक जस्त-ए-बुलंद-आरज़ू की है