अश्कों को अपनी आँख में पैहम लिए हुए हम चल रहे हैं जैसे शराबी पिए हुए क्या जाने क्या हुआ है कि दीवाना रो पड़ा लैला गई है दश्त से पर्दा किए हुए अब के शब-ए-फ़िराक़ का आलम न पोछिए मायूस अब सहर से हमारे दिए हुए ये इर्तिक़ा है उन का कि पस्ती की इब्तिदा बैनस्सुतूर थे जो वो अब हाशिए हुए इल्ज़ाम हम पे रख के वो उट्ठे चले गए बैठे रहे हम अपने लबों को सिए हुए अब इंतिज़ार-ए-नामा-बराँ ख़त्म हो चुका ना-पैद अपने शहर से अब डाकिये हुए अच्छी ज़मीं में शेर भी अच्छे हुए मगर 'दानिश' कमाल तंग तिरे क़ाफ़िए हुए