ज़िंदा-दिली निशाना-ए-तहक़ीर किस लिए खिंचती नहीं हयात की तस्वीर किस लिए शाख़-ए-शजर पे होती तो कुछ और बात थी मौजों पे आशियाने की ता'मीर किस लिए क्या तू ने पैरवी-ए-नबी छोड़ दी है अब बे-फ़ैज़ हो गई तिरी तक़रीर किस लिए अहल-ए-शुऊ'र जो थे वो पस्ती में खो गए बे-ढंग लोग पा गए तौक़ीर किस लिए तूफ़ान का ख़याल है या ज़लज़ले का ख़ौफ़ तेरे लबों पे नाला-ए-शब-गीर किस लिए मशहूर थीं ज़माने में शीरीं-बयानीयाँ अब खो गई ज़बान की तासीर किस लिए ता-सुब्ह तू ने ख़्वाब ही देखा न रात को फिर पूछता है ख़्वाब की ता'बीर किस लिए मंज़िल है 'दाग़' सामने अपने क़दम बढ़ाओ तुम देखते हो जानिब-ए-रह-गीर किस लिए