अश्कों से अपनी आँखें भिगोता रहा ग़ज़ाल बैठा नदी के तीर पे रोता रहा ग़ज़ाल अफ़्सोस ये है उस को ग़ज़ाला न मिल सकी ख़ुद को ग़मों में ख़ूब डुबोता रहा ग़ज़ाल सहरा-नवर्दियों उसे रास आई इस क़दर शानों पे ख़ाक-ए-इश्क़ भी ढोता रहा ग़ज़ाल वहशत का एहतिराम जुनूँ में किया ब-चश्म माज़ी के ख़ार दिल में चुभोता रहा ग़ज़ाल रंज-ओ-सुरूर-ओ-कैफ़ जवानी के चार दिन क्या क्या तुम्हारे इश्क़ में खोता रहा ग़ज़ाल आँखों में लाल डोरे से पड़ते चले गए आँसू ये किस हुनर से पिरोता रहा ग़ज़ाल साहिल तमाम रोज़ ग़मों के अज़ाब में बे-ख़ौफ़ जिस्म-ओ-जान से होता रहा ग़ज़ाल