शाम के तन पर सजी जो सुरमई पोशाक है हम चराग़ों की फ़क़त ये रौशनी पोशाक है चाँद पेशानी का टीका चाँदनी पोशाक है रात ने पहनी है जो वो साहिरी पोशाक है ख़ाक का ये जिस्म है और ख़ाक ही पोशाक है ज़िंदगी की ये नहीं ये रूह की पोशाक है इस को जन्नत में क़दम रखने पे है पाबंदियाँ जिस किसी बद-ज़ेहन की भी काफ़िरी पोशाक है हर गली नुक्कड़ नगर अब बन चुका मक़्तल यहाँ बे-गुनाहों की लहू तर चीख़ती पोशाक है सब की तक़रीरों में वैसे है ख़ुदा सब का ही इक हाँ मगर हर दिल की अपनी मज़हबी पोशाक है उस ग़ज़ल के हर्फ़ 'साहिल' मुस्कुराए किस क़दर मुद्दतों से जिस ने पहनी मातमी पोशाक है