असीर-ए-वहशत-ए-हिज्राँ को बद-गुमाँ न समझ गराँ ये वक़्त सही मुझ को सरगिराँ न समझ कुछ और भी यहाँ उस्लूब हैं बलाग़त के मुझे सुकूत-ओ-सदा के ही दरमियाँ न समझ वो एक लम्हा-ए-क़ुर्बत गुरेज़-पा ही सही जुदाइयों का ये मंज़र भी जावेदाँ न समझ ये क्या कि लाख सुख़न-हा-ए-ग़ुफ़्तनी हैं मगर वो सामने हो तो फिर काम की ज़बाँ न समझ कभी तो तू मिरी वारफ़्तगी की ज़द में भी आ मुझे ही अपनी मोहब्बत का तर्जुमाँ न समझ सफ़र के रंज हैं अपनी जगह मगर 'सरमद' जो तजरबात हैं रस्तों के राएगाँ न समझ