दर्द ही ज़ीस्त का उन्वान हुआ जाता है कौन पैवस्त-ए-रग-ए-जान हुआ जाता है दिल उछलता है ख़ुशी से कि वही शोख़ हसीं मेरी तन्हाई का मेहमान हुआ जाता है इक इरादा है कि आग़ोश-दर-आग़ोश हुआ एक लम्हा है कि रूमान हुआ जाता है एक मस्ती है कि आँखों में भरी रहती है इक तबस्सुम कि ख़ुमिस्तान हुआ जाता है शर्म के बोझ से पलकों का कभी झुक जाना मौत का अपनी ये सामान हुआ जाता है हाए क्या महशर-ए-ख़ामोश जगाया तू ने दिल के आशोब पे एहसान हुआ जाता है जितना दुख था मिरे सीने में सिमट आया है इक निराला सा ये मेहमान हुआ जाता है मैं शहीद-ए-रह-ए-उल्फ़त हूँ अज़ल से 'सरमद' यही मस्लक मिरा ईमान हुआ जाता है