अयाँ बे-रंगी-ए-ख़ाकिस्तर-ए-दिल होती जाती है ब-वस्फ़-ए-शम्अ भी तारीक महफ़िल होती जाती है मुकम्मल सुर्ख़ी-ए-अफ़्साना-ए-दिल होती जाती है हमारी दास्ताँ सुनने के क़ाबिल होती जाती है हुजूम-ए-यास से ये सूरत-ए-दिल होती जाती है मुझे अब शाम-ए-महफ़िल सुब्ह-ए-महफ़िल होती जाती है निगाह-ए-नाज़ वाक़िफ़ हो चली पिन्हाई-ए-दिल से कि जज़्ब-ए-दिल ब-क़द्र-ए-वुसअ'त-ए-दिल होती जाती है सुनाने को हमारे कह रहा है कोई महफ़िल में उदासी क्यों शरीक-ए-रंग-ए-महफ़िल होती जाती है न जाने मैं जहान-ए-शौक़ में क्या बनता जाता हूँ कि जो शय मिटती जाती है मिरा दिल होती जाती है ये परवानों की नाशें और आँसू शम-ए-सोज़ाँ के मुरत्तब और इक महफ़िल में महफ़िल होती जाती है सफ़ीने का हमारे देख कर रुख़ जानिब-साहिल 'शिफ़ा' क्यों आबदीदा शम-ए-साहिल होती जाती है