अज़-हद सवाल-ए-वस्ल पे इसरार हो चुका इक़रार अब तो कीजिए इंकार हो चुका वो आरज़ू-ए-दिल से ख़बर-दार हो चुका तम्हीद-ए-वस्ल सुनते ही हुशियार हो चुका साक़ी जो तेरे जाम से सरशार हो चुका बस रोज़-ए-हश्र तक भी वो हुशियार हो चुका अब लन-तरानी-ओ-अरिनी के वो दिन कहाँ ख़ुद फ़ैज़-ए-इश्क़-ए-यार से मैं यार हो चुका तज्वीज़ में सज़ा की कलाम अब नहीं रहा ख़ुद मुझ से जुर्म-ए-इश्क़ का इज़हार हो चुका सफ़्फ़ाक रहम आया मिरे दिल पे कब तुझे जब तीर ग़र्क़ ता-लब-ए-सूफ़ार हो चुका अब मेरे हाल पर न सितमगार रहम कर ये दिल रहीन-ए-लज़्ज़त-ए-आज़ार हो चुका पहुँचाया ज़ोफ़ ने मुझे जब बज़्म-ए-यार तक बरख़ास्त लोग हो गए दरबार हो चुका इस में क़सम ख़ुदा की बुतो झूट कुछ नहीं मैं तुम से इश्क़ कर के गुनहगार हो चुका बद-नामियों का ख़ौफ़ मुझे अब नहीं रहा रूसवा-ए-ख़ल्क़ मैं सर-ए-बाज़ार हो चुका अब इज़्तिराब क्यों है ज़रूरत है सब्र की 'साबिर' जब उन को वस्ल का इक़रार हो चुका