ब-फ़ैज़-ए-इश्क़ हर जा सैंकड़ों दीवाने मिलते हैं जहाँ भी शम्अ' रौशन हो वहीं परवाने मिलते हैं नहीं मौक़ूफ़ कुछ सहरा-नवर्दी पर ही ऐ हमदम जहाँ होते हैं फ़रज़ाने वहीं दीवाने मिलते हैं ये दिल की बस्तियाँ आबाद हैं जो हुस्न-ए-फ़ितरत से इन्ही आबादियों के क़ल्ब में वीराने मिलते हैं बता दे काश ये कोई हरम के जाने वालों को हरम की राह में भी अनगिनत बुत-ख़ाने मिलते हैं हुदूद-ए-इश्क़ में ही आफ़ियत है ये समझ लीजे हुदूद-ए-इश्क़ के उस पार तो वीराने मिलते हैं नहीं लाता हूँ अंदेशों को ख़ातिर में कभी हरगिज़ वहीं जाता हूँ उड़ कर मैं जहाँ कुछ दाने मिलते हैं जहाँ ज़िद्दैन यकजा हों वही दुनिया है ऐ 'ख़ावर' जहाँ हों जाने-पहचाने वहीं बेगाने मिलते हैं