ब-तर्फ़-ए-मुश्ताक़ गाह-गाहे तुझे मुनासिब गुज़र किया कर जले है दिल की भी आह-ए-सोज़ाँ से कज-कुलाहा हज़र किया कर जो घर से बाहर न देवे रुख़्सत हया अगरचे ब-सैर-ए-गुलशन कभी तो रौज़न से बर-लब-ए-बाम अपने आ कर नज़र किया कर ब-तल्ख़ दुश्नाम बे-मुरव्वत मुज़ाएक़ा तो नहीं है इस में दो लब से अपने हमारी क़िस्मत की ऐसी रोज़ी शकर किया कर न क़द्र हूर-ओ-परी की हरगिज़ समाए आँखों में तेरे आगे तुझे है लाज़िम कभी तो पुर्सिश ज़-हाल-ए-ख़ूनीं-जिगर किया कर गली में तेरी नहीं इजाज़त है शब की आने की मुझ को लेकिन रक़ीब-ओ-ग़म्माज़ अपने कूचे से बे-मुरव्वत बदर किया कर न चैन दिन को न ख़्वाब शब को सबब से हिजरत के तेरी मुझ को ब-नाज़-ओ-तमकीं-ओ-सदक़ा-ए-हुस्न एक बोसा नज़र किया कर ब-आह-ओ-ज़ारी फ़ुग़ान नाला से अपने यारो मैं रोज़ कहता कभी सितमगर के जा के दिल में अरे नि-भागे असर किया कर कहा था नासेह ने इश्क़-बाज़ी बहुत कठिन है न होना आशिक़ कि क़ुर्ब मज्लिस से उन बुतों की गर अक़्ल रखता ख़तर किया कर गर 'आफ़रीदी' के आरज़ू-दिल है वस्ल इस का तो वाजिब आया मिले न जब तक गली में उस के तो ख़ाक मिट्टी बसर किया कर