छोड़ उस का इश्क़ ढूँढूँ मह-वशान-ए-चंद और दिल उठा कर उस सते बाँधूंगा बा-दिल बंद और तेग़-ए-बुर्राँ से कोई काटे मुझे मुमकिन नहीं है अज़ल से मुझ को तेरे साथ जो पैवंद और है पियाला शीर का लबरेज़ मह के हाथ में अब शकर-ख़ंदी से उस में डाल दे तू क़ंद और दिल तसल्ली था यकायक क़त्अ-ए-उल्फ़त-बीं मगर ज़ख़्म-ए-दिल पर फिर नमक छिड़का ब-शक्कर-ख़ंद और मैं नहीं तन्हा कमंद-ए-ज़ुल्फ़ में तेरी फँसा है हर इक हल्क़ा में तेरी ज़ुल्फ़ के पाबंद और क़ौल पर तेरे नहीं पैमाँ-शिकन कुछ ए'तिबार हर घड़ी वा'दा करे या खावे तू सौगंद और वाए मुझ पर जाऊँ कूचे से तिरे किस तौर से टूटे गर यक बंद तेरी ज़ुल्फ़ डाले बंद और हाथ उठाऊँ इश्क़ से हरगिज़ ये हो सकता नहीं नासेहा हर-दम मिरा दिल छील मत बा-पंद और पूछता है 'आफ़रीदी' से तिरा मालिक है कौन कौन है तेरे सिवा मेरे ख़ुदा ख़ावंद और