बच-बचा कर जिस्म से भागा कोई गिरती दीवारों की ज़द में था कोई इस क़दर दस्त-ए-रसाई से गुरेज़ हम न साहिल हैं न तुम दरिया कोई लौट आते दश्त-ए-तन्हाई से हम शहर में आवाज़ तो देता कोई सारे दिन सिगरेट के मरग़ोलों में बंद रात भर ख़्वाबों का क़ैदी था कोई मेरे दरिया तू शनावर को न भूल देख तो तह में तिरी डूबा कोई वो भी है लफ़्ज़ों के महबस में असीर इन लकीरों से निकल आता कोई