बद-गुमानी की सदा काई जमी रहती है

बद-गुमानी की सदा काई जमी रहती है
इस क़दर चश्म-ए-गुरेज़ाँ में नमी रहती है

तुम तो इस घर से गए रौनक़ें घर की ले कर
अब तो वीरानी सी इस घर में पड़ी रहती है

मुझ को लाएँगी किनारे पे ये लहरें इक दिन
जिन से कश्ती मिरी हर-वक़्त घिरी रहती है

है ये एजाज़-ए-करम तेरी मसीहाई का
शाख़ गुलहा-ए-अक़ीदत की हरी रहती है

किस तरह देखूँ तुझे मद्द-ए-मुक़ाबिल मेरे
हैरतों की कोई दीवार खड़ी रहती है

कौन रहता है यहाँ कोई नहीं रहता है
अब तो इस दिल में फ़क़त तेरी कमी रहती है

खोल देता हूँ सभी याद के तस्मे लेकिन
एक उम्मीद सदा दिल से बंधी रहती है

कैसे मुमकिन है किसी और की ख़ुशबू आए
तेरी ख़ुशबू मिरी साँसों में बसी रहती है

अपने क़दमों में सिमट जाते हैं साए 'अशहर'
धूप महरूमी की जब सर पे कड़ी रहती है


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