बदन पे अपने सरापा अज़ाब पहने हुए फिर आज निकला है सहरा सराब पहने हुए हर एक शख़्स की नज़रों को कर गया उर्यां ये कौन गुज़रा यहाँ से नक़ाब पहने हुए हमारे जिस्म की दीवार गिर न जाए कहीं तुम्हारे हिज्र का मौसम है आब पहने हुए चमन से ख़ुशबू निकल कर हवा से पूछती है किसी को देखा है तुम ने गुलाब पहने हुए हमारे तकिए पे कल नींद सर पटकती रही हमारी आँख थी एक ऐसा ख़्वाब पहने हुए किसी ने हिंदवी तो रेख़्ता किसी ने कहा ज़बान-ए-उर्दू है क्या क्या ख़िताब पहने हुए कोई भी सिंफ़-ए-सुख़न इस तरह नहीं 'दिलबर' ग़ज़ल ही तन्हा है हर इक निसाब पहने हुए