बदन से लड़ते हुए ज़िद पे डट गया इक दिन जो एक दर्द था आख़िर को घट गया इक दिन हमारे चेहरे को छोड़ो ये ऐसा दिखता है ग़ुबार-ए-वक़्त से गर दिल भी अट गया इक दिन मिज़ाज कोई भी रहता नहीं है देर तलक जो मुझ से दूर खड़ा था लिपट गया इक दिन वो आबला मिरी रफ़्तार जो बढ़ाता था मसाफ़तों में कहीं पर वो फट गया इक दिन फ़क़ीह-ए-शहर जिसे इख़्तिलाफ़ था तुझ से सुधर गया कि वो रस्ते से हट गया इक दिन ज़वाल आता है सहरा पे आज देख लिया जो मुझ में फैला हुआ था सिमट गया इक दिन मुझे गुमाँ था कि मेरा है सिर्फ़ मेरा है वो एक दरिया था रस्तों में बट गया इक दिन किनारे था तो मुसलसल उदास था 'साबिर' समुंदरों को सफ़ीना पलट गया इक दिन