बड़ी पुर-फ़न निगाह-ए-शर्मगीं मालूम होती है ग़ज़ब ढाती है लेकिन दिल-नशीं मालूम होती है फ़रेब-ए-वा'दा-ए-फ़र्दा का इतना सेहर है मुझ पर कभी वो हाँ भी कह दें तो नहीं मालूम होती है यक़ीं था आरज़ू निकलेगी दिल से उन के आने पर मगर कम्बख़्त वो अब तक यहीं मालूम होती है अजब क्या है फ़लक भी दुश्मनी पर अब उतर आए नज़र उस शोख़ की कुछ ख़शमगीं मालूम होती है बहुत ताकीद की थी चश्म-ए-तर को ज़ब्त-ए-गिर्या की मगर भीगी हुई फिर आस्तीं मालूम होती है मोहब्बत रफ़्ता रफ़्ता जान की दुश्मन न हो जाए अभी तक तो बहुत कैफ़-आफ़रीं मालूम होती है नहीं समझा न समझे कोई रुत्बा ख़ाकसारी का हमें तो हासिल-ए-दुनिया-ओ-दीं मालूम होती है हुए हैं पाँव ज़ख़्मी होशियार अब ऐ दिल-ए-नादाँ मुझे ये कू-ए-क़ातिल की ज़मीं मालूम होती है कहीं से माँग लाई है बला की शोख़ियाँ 'साहिर' घटा सावन की भी कितनी हसीं मालूम होती है