बदला हुआ सा रंग-ए-गुलिस्ताँ है इन दिनों हम पर बहार तो तिरा एहसाँ है इन दिनों महका है उस के दम से गुलिस्तान-ए-आरज़ू अपना लहू बहार का उनवाँ है इन दिनों अपना लिया है जिस को तिरे ग़म के साथ साथ वो ग़म ग़म-ए-हयात का दरमाँ है इन दिनों लाएँ कहाँ से रौशनी-ए-दिल समेट कर नज़रों से दूर दूर चराग़ाँ है इन दिनों कहते हैं ज़िंदगी जिसे ऐ मोनिस-ए-हयात तेरे बग़ैर ख़्वाब-ए-परेशाँ है इन दिनों