बहार तो है मगर हासिल-ए-बहार नहीं ये ही मसल है कि डोली तो है कहार नहीं मियाँ पुलिस में मुलाज़िम तो बीवी कॉलेज में उठाता कोई भी इक दूसरे का बार नहीं लदा हुआ है गिरानी का बोझ काँधे पर है कौन शख़्स जो इस दौर में कहार नहीं अब इस से बढ़ के भी होगा जुनून-ए-आज़ादी कि घूमते हैं बरहना बदन पे तार नहीं वो मौलवी हो कि पंडित हो सिंफ़-ए-नाज़ुक का वो ख़ुद शिकार है उस का कोई शिकार नहीं हो जिस हसीं से मोहब्बत फिरे वो ग़ैर के साथ बशर तो क्या हमें हैवाँ पे ए'तिबार नहीं बहुत दिनों में मुदर्रिस जो आए हैं 'नावक' तो लोग शर्म से करते निगाह चार नहीं