ये जानते हुए कि नदी है चढ़ाओ पर हम भी चले हैं बैठ के काग़ज़ की नाव पर जलते हुए नगर के यही ज़िम्मा-दार हैं जो लोग हाथ ताप रहे हैं अलाव पर उल्फ़त के दाएरे न बिखर जाएँ टूट कर फेंका करो न तंज़ के पत्थर बहाव पर छाँव जो अपनी बाँट चुका मैं वो पेड़ हूँ बे-साया हो के ख़ुद को लगाया है दाओ पर हर जिस्म दाग़ दाग़ लिबासों की आड़ में लेकिन ये ए'तिराज़ फ़क़त मेरे घाव पर