बहार-ए-बाग़ मेहमाँ दो घड़ी है उसी से ओस ग़ुंचों पर पड़ी है उन्हें जान-ए-चमन क्यूँकर न समझूँ है चेहरा फूल तो लब पंखुड़ी है रुख़-ए-गुल-गूँ अरक़ आलूद है यूँ कि जैसे ओस फूलों पर पड़ी है कोई पुर्सान-ए-हाल-ए-दिल हो क्यूँकर यहाँ हर एक को अपनी पड़ी है 'रियाज़' आवाज़ आती है जरस से रह-ए-तस्लीम की मंज़िल कड़ी है