देखा है रक़्स-ए-शो'ला गुल-ओ-लाला-ज़ार ने ख़ुद आशियाँ को आग लगा दी बहार ने सीने में अब कहीं भी ख़िज़ाँ का निशाँ नहीं यूँ गुल खिला दिए हैं दिल-ए-दाग़दार ने मैं कर चुका था ज़ब्त ग़म-ए-इश्क़ को मगर लूटा मिरा सुकून दिल-ए-बे-क़रार ने आँखों में दम रुका है लबों पर है तेरा नाम ज़िंदा फ़क़त रखा है तिरे इंतिज़ार ने दोहरा दिया तबाही का अफ़्साना बार बार साज़-ए-दिल-ए-शिकस्ता के हर एक तार ने बहबूदी-ए-चमन के थे सब मुद्दई मगर छोड़ा है अपना फ़र्ज़ हर इक ज़िम्मा-दार ने हँस हँस के उन का कहना शब-ए-वस्ल में 'रियाज़' बे-बस किया है आप के क़ौल-ओ-क़रार ने