बहारों की तरह दर बोलता है कोई आ जाए तो घर बोलता है कभी देता है नामा-बर भी दस्तक कभी छत पर कबूतर बोलता है ये दरिया पेड़-पौदे और झरने हर इक वादी का मंज़र बोलता है तराशा है उसे मैं ने हुनर से मिरे हाथों का पत्थर बोलता है अदब वाले सुख़न कहते हैं उस को ये जादू सर पे चढ़ कर बोलता है तपाया है बहुत मेहनत से उस को ये सोना भी निखर कर बोलता है जहाँ से हाथ ख़ाली जाएँगे सब ये इक जुमला सिकंदर बोलता है सिफ़ारिश का भरोसा भी नहीं है मगर पैसा बराबर बोलता है 'नज़ीर-ए-मेरठी' हो बात कड़वी तो गूँगा भी पलट कर बोलता है