बहर-ए-ग़म में ग़ोता-ज़न हैं कैसी कैसी हस्तियाँ दर्द-ए-साहिल पे ही क्यों तुम ले रहे हो सिसकियाँ रेत के कच्चे घरौंदे बह गए तो फ़िक्र क्या एक दिन सैलाब ले जाएगा सारी बस्तियाँ एक दिन फूलों की लाली तक चुरा ले जाएँगी इस चमन की मुख़्तलिफ़ रंगों की उड़ती तितलियाँ एक जानिब मै-कदा है इक तरफ़ है ख़ानक़ाह देखिए जाती किधर हैं सूफ़ियों की टोलियाँ पहले मुझ पे एक वही उँगली उठाता था 'सबा' और अब तो बे-शुमार उठती हैं मुझ पे उँगलियाँ