बहुत लतीफ़ है ये मुख़्तसर जहाँ अपना जिगर-नवाज़ भी तू तू ही राज़दाँ अपना तमाम दौलत-ए-हस्ती लुटा के माँगूँगा बहार-ए-हुस्न तिरी ज़ौक़-ए-जावेदाँ अपना बहम हुए हैं शनासा-ए-यक-दिगर दोनों निगाह-ए-नाज़ तिरी क़ल्ब-ए-ख़ूँ-चकाँ अपना शफ़क़ में सीना-ए-गुल में जुनूँ की वादी में बटा है ख़ून-ए-जिगर भी कहाँ कहाँ अपना ये आरज़ी ही सही आब-ओ-रंग-ए-हुस्न मगर लुटा रही है ख़िरद इन पे कारवाँ अपना जबीं-नवाज़ है जलवों की ये फ़रावानी कहाँ है आज सर-ए-नंग-ए-आस्ताँ अपना नवाज़िशात-ए-गुज़िश्ता कि अब ख़याली हैं बना रहा हूँ उन्हीं से मैं गुलिस्ताँ अपना अजीब ज़ौक़-फ़ज़ा जुस्तुजू की लज़्ज़त है भटकने दो भी ज़रा देर कारवाँ अपना हज़ार कुछ न सही मुश्त-ए-ख़ाक-ए-इंसाँ में उरूज-ए-अर्श पे है फिर भी आस्ताँ अपना न सूद ही न ज़ियाँ ही न रंज-ओ-राहत है है अक़्ल-ओ-होश के पर्दे में इम्तिहाँ अपना हैं आश्ना-ए-हवादिस तो ख़ौफ़-ए-बर्क़ ही क्या दिखा दिखा के बनाते हैं आशियाँ अपना