बहुत से सैल-ए-हवादिस की ज़द पे बह गए हैं ये चंद एक दरख़्तान-ए-सब्ज़ रह गए हैं मकीन दश्त के फ़ील-फ़ौर दश्त छोड़ गए कि शेर-ज़ाद ख़मोशी से वार सह गए हैं ज़मीन बाँझ है नाज़ाद हो गए खलियान अगरचे सुब्ह ओ मसा बार बार गह गए हैं परिंदगाँ! तुम्हें कुछ भी ख़बर न हो पाई दरख़्त ढे गए अम्बार-ए-आब बह गए हैं बहार अब के जो गुज़री तो फिर न आएगी बिछड़ने वाले बिछड़ते समय ये कह गए हैं