बैठा नहीं हूँ साया-ए-दीवार देख कर ठहरा हुआ हूँ वक़्त की रफ़्तार देख कर हम-मशरबी की शर्म गवारा न हो सकी ख़ुद छोड़ दी है शैख़ को मय-ख़्वार देख कर क्या देखता है ऐ दिल-ए-मुश्ताक़-ए-दीद अब हम ने तो कह दिया था ख़बर-दार देख कर आने लगी है इश्क़ को ग़ैरत पर अपनी शर्म शायद तिरी निगाह को बेज़ार देख कर क्या क्या फ़रेब-ए-अक़्ल दिए उन की बज़्म ने मेरे जुनूँ को महरम-ए-असरार देख कर क्या जाने बहर-ए-इश्क़ में कितने हुए हैं ग़र्क़ साहिल से सत्ह आब को हमवार देख कर दुनिया की ज़िंदगी का तसव्वुर है सुब्ह-ए-हश्र जागा हूँ ख़ुद को ख़्वाब में बेदार देख कर हैं आज तक निगाह में हालाँकि आज तक देखा न फिर कभी उन्हें इक बार देख कर दस्त-ए-वफ़ा से दामन-ए-दिल को छुड़ा लिया अहल-ए-हवस ने इश्क़ को दुश्वार देख कर 'बिस्मिल' तुम आज रोते हो अंजाम-ए-इश्क़ को हम कल समझ गए थे कुछ आसार देख कर