बैठे हैं गेसुओं को परेशाँ किए हुए मेरे जुनूँ को हुस्न का उनवाँ किए हुए जी चाहता है कीजिए बरहम मिज़ाज-ए-हुस्न मुद्दत हुई है उन को नुमायाँ किए हुए जुरअत तो मेरी देख कि हूँ तेरे सामने हस्ती से अपनी तुझ को नुमायाँ किए हुए रखता हूँ सौ मुआ'मले तुझ से ब-फ़ैज़-ए-दिल अपनी नज़र से भी तुझे पिन्हाँ किए हुए है वो नज़र तवाज़ो-ए-उल्फ़त से मुतमइन मेहमाँ को नज़्र-ए-शोख़ी-ए-मिज़्गाँ किए हुए या-रब फिर एक बार फ़क़ीरों पे मरहमत मुद्दत हुई ज़ियारत-ए-इंसाँ किए हुए गोया उन्हीं की याद में है 'मैकश'-ए-ख़राब ख़ुद अपने कुफ़्र-ए-इश्क़ को ईमाँ किए हुए